Hindi Gazal -2 by Dr Hitesh Modha
प्रिय दोस्त लोगो एक ओर ग़ज़ल
" उम्मीद "
उम्मीद का कारवां अभी तक थमा नहीं,
मुसाफिर हु, इस लिए कभी रुका नहीं.
खामोश है लबो मेरे अभी तक,
दर्द'ए बयां को अल्फाज़ मिला नहीं.
सुरूर था एक कश्मकश में जीने का,
ताकि शाम को पैमानी में डुबाया नहीं.
हर वक़्त किसी के ख्वाब में होता हु,
सुरमा से अपनी आंख को सजाया नहीं,
टूटी हुई है माला मेरे ये हाथो में,
यकीं की दांस्ता को धागों में पिरोया नहीं.
गैर कोई नहीं, सब यहाँ अकेला होता है,
भीड में कोई अपना या पराया मिला नहीं.
-----ड़ो हितेश ए. मोढा