मेरे प्रिय मित्र
आज आप लोगो के लिए एक ग़ज़ल
"आलम "
देखू हथेली लेकिन मुक्कदर का पता नहीं
खड़ा हु साहिल पे, सागर का पता नहीं
एक ही तो हसरत है इस दिल में ,
काश, गर ओर अक्सर का पता नहीं.
दो गज जमीं के लिए दौड़ा दिन-भर ,
हो गयी रात फिर भी कबर का पता नहीं .
खुद की तलाश में निकल पड़े थे हम यारो,
आलम ये है आज मेरे घर का पता नहीं.
लहू लुहान है इन्शान इस जमीं पे,
ईशा, अल्लाह ओर इश्वर का पता नहीं.
जी में आया तो लिख दी ये ग़ज़ल,
क्या होगी,? उसकी असर का पता नहीं